Prajatantra: नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक, Ram Mandir पर कांग्रेस के भीतर कभी नहीं रही एक राय

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22 तारीख को राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होने से कांग्रेस ने इनकार कर दिया है। राहुल गांधी ने भी कहा है कि यह पूरी तरीके से नरेंद्र मोदी और आरएसएस का इवेंट है। हालांकि, कांग्रेस इस बात का श्रेय लेने से नहीं चूकती है कि राजीव गांधी ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने मंदिर का ताला खुलवाया था। यह कहीं ना कहीं कांग्रेस की ओर से क्रेडिट लेने की एक कोशिश के तौर पर सामने आता है। हालांकि यह बात भी सच है कि जितना पुराना राम मंदिर का मुद्दा है, उतना ही कांग्रेस के भीतर इसको लेकर भ्रम भी रहा है। कांग्रेस कभी भी एकमत होकर ना तो राम मंदिर के पक्ष में खड़ी हुई हैं ना विरोध में रही है। पार्टी के भीतर से ही राम मंदिर को लेकर कई राय सामने निकल कर आ ही जाती है। 
 

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जवाहरलाल नेहरू का आदेश

22-23 दिसंबर, 1949 की रात को बाबरी मस्जिद के अंदर राम लल्ला की मूर्ति के प्रकट होने के बाद कांग्रेस इस मामले पर अलग-अलग स्वर में बोल रही थी। यह वही वक्त था जब हिंदू पक्ष ने साफ तौर पर दावा किया था कि भगवान राम खुद प्रकट होकर संदेश दे रहे हैं कि यही उनका जन्म स्थान है। घटना के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस के गोविंद बल्लभ पंत के नेतृत्व वाली राज्य सरकार पर मूर्ति हटाने के लिए दबाव डाला था। फिर भी कांग्रेस एक सुर में नहीं बोल पा रही थी। फैजाबाद से कांग्रेस विधायक बाबा राघव दास थे, जो मुख्यमंत्री द्वारा चुने गए एक तपस्वी थे, जिन्होंने 1948 में विधानसभा उपचुनाव में समाजवादी आचार्य नरेंद्र देव को हराया था। दास ने मूर्ति हटाए जाने पर विधानसभा और पार्टी से इस्तीफा देने की धमकी दी थी। 

सरदार पटेल का पक्ष

जिला मजिस्ट्रेट केके नायर ने मूर्ति हटाने के खिलाफ तर्क दिया और कहा कि अगर सरकार इसे हटाना चाहती है तो उनकी जगह किसी अन्य अधिकारी को नियुक्त किया जाना चाहिए। यहां तक ​​कि जब नेहरू ने चिंता व्यक्त की, तो सरदार पटेल ने पंत को पत्र लिखकर कहा कि “आक्रामकता या जबरदस्ती के रवैये पर आधारित कोई भी एकतरफा कार्रवाई बर्दाश्त नहीं की जाएगी”। इसका मतलब यह भी था कि मूर्ति बनी रहेगी। नेहरू ने 1950 में अयोध्या का दौरा न करने का फैसला किया और उसी वर्ष 17 अप्रैल को पंत को लिखा कि वह इसलिए नहीं जाएंगे ताकि “मेरे पुराने सहयोगियों के साथ टकराव न हो और (क्योंकि) मैं वहां बहुत असहज महसूस करता हूं, क्योंकि मुझे लगता है कि यह सांप्रदायिकता है।” 

इंदिरा गांधी पर दवाब

1980 के दशक की शुरुआत में राम मंदिर आंदोलन ने नया रूप लिया। यह पहल किसी भाजपा नेता ने नहीं की थी। यह कांग्रेस नेता और यूपी के पूर्व मंत्री दाऊ दयाल खन्ना पहले राजनेता थे, जिन्होंने मई 1983 में तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर अयोध्या, काशी और मथुरा को हिंदुओं को बहाल करने की मांग की थी। यूपी से कांग्रेस के दिग्गज नेता केंद्रीय मंत्री कमलापति त्रिपाठी ने खन्ना को आगाह किया कि वह बारूद से खेल रहे हैं और हिंदू-मुस्लिम एकता की कांग्रेस की नीति को नष्ट कर रहे हैं। लेकिन खन्ना अकेले नहीं थे। वयोवृद्ध कांग्रेसी और पूर्व अंतरिम प्रधान मंत्री गुलज़ारीलाल नंदा ने 1983 में राम नवमी पर श्री राम जन्मोत्सव समिति की स्थापना की। उस अवसर पर आयोजित भोज में आरएसएस नेता भी शामिल हुए थे। कर्ण सिंह ने भी इस समय कई सांस्कृतिक पहल की थी।

राजीव गांधी की नीति

1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री के रूप में राजीव गांधी का दौर शुरू हुआ था। अयोध्या में ताला खुलवाने का फैसला शाहबानो मामले में हाथ जलाने के बाद बहुसंख्यकों को खुश करने की खातिर राजीव गांधी का एक नासमझी भरा पैंतरा था। अरुण नेहरू और माखनलाल फोतेदार समते कांग्रेस के कई नेताओं ने उन्हें सलाह दी कि वो राम मंदिर का ताला खुलवा दें तो जो हिंदू शाहबानों प्रकरण की वजह से कांग्रेस से नाराज हैं वो खुश हो जाएंगे। राजीव गांधी इस बात को तैयार हो गए। 1987 में, राज्य प्रसारक दूरदर्शन ने रामानंद सागर द्वारा निर्मित 78-एपिसोड का धारावाहिक रामायण चलाया। यह दर्शकों के बीच एक प्रमुख आकर्षण बन गया। राजीव ने कांग्रेस के लिए सिलसिलेवार प्रचार में राम की भूमिका निभाने वाले अरुण गोविल को भी शामिल किया था।
 

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पीवी नरसिम्हा राव पर सवाल

1989 में ही भाजपा ने पालमपुर प्रस्ताव के माध्यम से राम जन्मभूमि आंदोलन को आधिकारिक समर्थन दिया था। राजीव गांधी ने विहिप को राम मंदिर के लिए शिलान्यास समारोह आयोजित करने की अनुमति देकर पलटवार करने की कोशिश की। हालाँकि, आज़ादी के बाद से उत्तर भारत में मुस्लिम वोट बैंक के कारण कांग्रेस की राम मंदिर की भावना को बढ़ावा देने की सीमाएँ थीं। 6 दिसंबर, 1992 को भाजपा नेताओं की उपस्थिति में बाबरी मस्जिद के विध्वंस – जिन्होंने कहा कि वे भीड़ को नियंत्रित करने में विफल रहे – ने उत्तर भारत में हिंदुओं को भाजपा की ओर स्थानांतरित कर दिया। न तो कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के तहत राज्य पुलिस और न ही केंद्र में पीवी नरसिम्हा राव सरकार को रिपोर्ट करने वाली सीआरपीएफ मस्जिद को ध्वस्त होने से रोक सकी। उस दौरान पीवी नरसिम्हा की चुप्पी पर भी कई सवाल उठते हैं। 
यह बात सच है कि 90 के दौर में राम मंदिर आंदोलन ने जिस तरीके से सुर्खियां बटोरी, उसके बाद से उत्तर भारत में कांग्रेस कमजोर होती चली गई। वहीं भाजपा ने अपनी पकड़ को मजबूत किया। मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान राम मंदिर और भगवान राम को लेकर कांग्रेस नेताओं की ओर से दिए गए बयानों को भी भाजपा ने मुद्दा बनाया। यही कारण है कि कहीं ना कहीं कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता की राह पर चलते हुए हिंदुओं के बीच कमजोर होती गई। 



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