Shaurya Path: NATO, Russia-Ukraine War, PM Modi France Visit, Muslim World League और Agnipath Scheme संबंधी मुद्दों पर Brigadier DS Tripathi (R) से बातचीत

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प्रभासाक्षी न्यूज नेटवर्क के खास कार्यक्रम शौर्य पथ में इस सप्ताह नाटो में स्वीडन की एंट्री, रूस-यूक्रेन युद्ध, इस्लामिक देशों से बढ़ती भारत की निकटता, प्रधानमंत्री मोदी की फ्रांस यात्रा और अग्निपथ योजना को लेकर उठ रहे सवालों पर ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) के साथ चर्चा की गयी। पेश है विस्तृत बातचीत-
प्रश्न-1 नाटो प्रमुख ने कहा है कि नेताओं ने यूक्रेन को समूह में शामिल करने के लिए कोई समय सीमा तय नहीं की है, इस रुख से जेलेंस्की नाराज हैं। इसके अलावा स्वीडन के नाटो में प्रवेश को तुर्की की मंजूरी मिल गयी है। हालांकि तुर्की के यूरोपियन यूनियन में प्रवेश की खिलाफत जारी है। इस सबको कैसे देखते हैं आप?
उत्तर- एक आश्चर्यजनक कदम के तहत तुर्की ने स्वीडन के नाटो में शामिल होने पर अपना वीटो समाप्त कर दिया जिससे सैन्य गठबंधन में उसकी सदस्यता की सभी बाधाएं दूर हो गई हैं। हंगरी ने तुरंत इसका अनुसरण किया और दोनों देशों के समर्थन के परिणामस्वरूप लिथुआनिया के विनियस में 2023 नाटो शिखर सम्मेलन में एक आम सहमति बन पाई। तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन का स्वीडन को नाटो में शामिल करने के प्रयास के समर्थन पर सहमत होना शिखर सम्मेलन की प्रमुख उपलब्धियों में से एक माना जाएगा। स्वीडन ने फिनलैंड के साथ मई 2022 में सदस्यता के लिए अपना औपचारिक आवेदन प्रस्तुत किया था। फिनलैंड को अप्रैल 2023 में गठबंधन में शामिल किया गया। स्वीडन, हालांकि एक औपचारिक सदस्य नहीं है। देखा जाये तो 1994 में गठबंधन के शांति कार्यक्रम में भागीदारी में शामिल होने के बाद से लगभग 30 वर्षों तक नाटो के साथ उसका बहुत करीबी रिश्ता रहा है। इसने नाटो मिशनों में योगदान दिया है और यूरोपीय संघ के सदस्य और ब्लॉक की सामान्य सुरक्षा और रक्षा नीति में योगदानकर्ता के रूप में, इसने यूरोपीय नाटो सहयोगियों के विशाल बहुमत के साथ मिलकर काम किया है।
नाटो की सदस्यता हासिल करने के लिए स्वीडन और फिनलैंड दोनों ने सैन्य गुटनिरपेक्षता की अपनी पारंपरिक नीति को नाटकीय रूप से बदल दिया है। इस कदम का एक महत्वपूर्ण कारण स्पष्ट रूप से, फरवरी 2022 में यूक्रेन पर रूस का आक्रमण था। यह इस बात का भी अधिक प्रमाण है कि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन अपने दो रणनीतिक उद्देश्यों को प्राप्त करने में विफल रहे हैं- गठबंधन में एकजुटता को कमजोर करना और नाटो को आगे बढ़ने से रोकना।
फिनलैंड और स्वीडन के संगठन में शामिल होने का यह महत्वपूर्ण परिचालन महत्व है कि नाटो रूसी आक्रामकता के खिलाफ मित्र देशों की रक्षा कैसे करता है। इन दोनों देशों को इसके उत्तरी किनारे (अटलांटिक और यूरोपीय आर्कटिक) पर एकीकृत करने से इसके यूक्रेन-आसन्न केंद्र (बाल्टिक सागर से आल्प्स तक) की रक्षा के लिए योजनाओं को मजबूत करने में मदद मिलेगी। इससे यह सुनिश्चित होगा कि रूस को अपनी संपूर्ण पश्चिमी सीमा पर शक्तिशाली और अंतर-संचालनीय सैन्य बलों से मुकाबला करना पड़ेगा। तुर्की ने अपना वीटो क्यों हटाया यदि इस पर बात करें तो कहा जा सकता है कि पिछले कुछ वर्षों से, नाटो के साथ तुर्की के रिश्ते सूक्ष्म और तनावपूर्ण रहे हैं। स्वीडन की सदस्यता पर तुर्की की आपत्तियाँ स्पष्ट रूप से कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी या पीकेके के प्रति स्वीडन की नीति पर उसकी चिंताओं से जुड़ी थीं। तुर्की ने स्वीडन पर कुर्द आतंकवादियों को शरण देने का आरोप लगाया है। नाटो ने इसे एक वैध सुरक्षा चिंता के रूप में स्वीकार किया है और स्वीडन ने नाटो की सदस्यता हासिल करने के प्रयास के रूप में रियायतें दी हैं। हालाँकि, समझौते का मुख्य कारण हमेशा की तरह अमेरिका से जुड़ा कोई एक हित रहा होगा। ऐसा प्रतीत होता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन अब एफ-16 लड़ाकू विमानों को तुर्की को देने की योजना के साथ आगे बढ़ रहे हैं- यह एक ऐसा सौदा है जो स्वीडन पर एर्दोगन के बदले हुए रुख से संभव हो पाया है। लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि आसपास के कई सौदे और सौदों के सुझाव नाटो में आवाजाही को सुविधाजनक बनाने में मदद कर सकते हैं। ऐसा लगता है कि तुर्की समेत हर कोई अब विकास को अपने मतदाताओं को लुभाने के साधन के तौर पर देखता है।
स्वीडन के शामिल होने का मतलब है कि सभी नॉर्डिक देश अब नाटो का हिस्सा हैं। परिचालन और सैन्य दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ, इस विस्तार में प्रमुख राजनीतिक, रणनीतिक और रक्षा योजना निहितार्थ हैं। हालाँकि फ़िनलैंड और स्वीडन वर्षों से “आभासी सहयोगी” रहे हैं, उनके औपचारिक रूप से समूह में शामिल होने का मतलब व्यवहार में कुछ बदलाव है। रणनीतिक रूप से, दोनों अब सामूहिक रक्षा की योजना बनाने के लिए बाकी नाटो सहयोगियों के साथ निर्बाध रूप से काम करने के लिए स्वतंत्र हैं। रणनीतिक योजनाओं को एकीकृत करना बेहद मूल्यवान है, विशेष रूप से रूस के साथ फिनलैंड की विशाल सीमा और गोटलैंड के बाल्टिक सागर द्वीप जैसे महत्वपूर्ण इलाके पर स्वीडन के कब्जे को देखते हुए। इससे रणनीतिक अंतरसंचालनीयता और समन्वय बढ़ेगा।
प्रश्न-2 रूस-यूक्रेन युद्ध को चलते हुए 500 से ज्यादा दिन हो गये हैं। इस समय युद्ध के ताजा हालात क्या हैं? इसके अलावा रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने विद्रोह के कुछ दिनों बाद वैगनर प्रमुख येवगेनी प्रिगोझिन से आखिर क्यों मुलाकात की? साथ ही हम यह भी जानना चाहते हैं कि अमेरिका को क्यों और कैसे लग रहा है कि यूक्रेन में स्थायी शांति लाने में भारत कोई भूमिका निभा सकता है? क्या पर्दे के पीछे से कुछ वार्ताएं चल रही हैं?
उत्तर- युद्ध के ताजा हालात यह हैं कि किसी को कुछ हासिल नहीं हो पा रहा है। नाटो देश भी यूक्रेन को मदद देते देते थक चुके हैं। ब्रिटेन के एक वरिष्ठ मंत्री ने तो यहां तक कह दिया है कि यूक्रेन के राष्ट्रपति को लगता है कि हमने कोई अमेजन का गोदाम खोल रखा है जहां लिस्ट लेकर आ जाओ और हथियार लेकर चले जाओ। यूक्रेन अपने दम पर कुछ कर नहीं पा रहा है और अपने हारे हुए इलाकों में भी वापस आगे नहीं बढ़ पा रहा है। जहां तक जानमाल के नुकसान की बात है तो रूस के करीब 60 हजार लोगों की जान गयी है जबकि यूक्रेन में लाखों लोग मारे गये हैं और एक करोड़ से ज्यादा विस्थापित या बेघर हो गये हैं। इस लड़ाई को बड़े देश भले नियंत्रित कर रहे हैं लेकिन नुकसान नुकसान यूक्रेन की आम जनता का हो रहा है। जिस तरह यूक्रेन नाटो के करीब जाता दिख रहा है उसको देखते हुए रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की वह चेतावनी सही लग रही है कि दो देशों के बीच की यह लड़ाई विश्वयुद्ध का रूप ले सकती है। जहां तक वैगनर ग्रुप के प्रमुख से पुतिन की मुलाकात की बात है तो उन्होंने इसके जरिये यह संकेत दिया है कि वह किसी भी विद्रोह को तुरंत कुचल सकते हैं और अपने विरोधियों को वार्ता की टेबल पर लाने की क्षमता रखते हैं। इस युद्ध की सबसे खराब बात जो होने जा रही है वह यह कि अमेरिका ने यूक्रेन को कलस्टर बम देने पर हामी भरी है। साल 2008 से 2010 के बीच विश्व स्तर पर कलस्टर बम के उपयोग के खिलाफ एक मुहिम चली थी जिस पर 100 से ज्यादा देशों ने हस्ताक्षर किये थे मगर अमेरिका और यूक्रेन ने कलस्टर बम का उपयोग नहीं करने वाले घोषणापत्र पर हस्ताक्षर नहीं किये थे। कलस्टर बम मानव के लिए बहुत हानिकारक हैं और इसका दुष्प्रभाव आने वाले वर्षों तक दिखाई देगा।
जहां तक यूक्रेन में शांति लाने में भारत की भूमिका की बात है तो भारत ने सदैव कहा है कि वह युद्ध में तटस्थ नहीं बल्कि शांति के पक्ष में है। इसलिए यूक्रेन में स्थायी शांति लाने के लिए मदद करने में भारत की भूमिका का अमेरिका ने स्वागत किया है। कीव में अमेरिकी राजदूत ब्रिजेट ए ब्रिंक ने भी कहा है कि भारत वैश्विक स्तर पर बढ़ते कद और जी-20 की मौजूदा अध्यक्षता के साथ यूक्रेन में युद्ध को खत्म करने में अहम योगदान दे सकता है। ब्रिंक ने कहा है कि विभिन्न वैश्विक चुनौतियों के समाधान में भारत का नेतृत्व अहम है तथा ‘ग्लोबल साउथ’ पर युद्ध के विपरीत प्रभाव को लेकर नई दिल्ली की बढ़ती चिंता इस बात की ज़मीन तैयार करती है कि वह संकट को कम करने में भूमिका निभा सकती है। उन्होंने कहा कि अमेरिका स्वतंत्रता और लोकतंत्रों का समर्थन करने के लिए भारत समेत दुनियाभर में अपने सभी साझेदारों और सहयोगियों के साथ काम करने की उम्मीद रखता है। अमेरिकी राजदूत ने कहा कि वैश्विक नेतृत्व के लिए भारत की आकांक्षाएं और जी-20 की ‘एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य’ थीम के जरिए सामूहिक कार्रवाई का उसका आह्वान उस भावना को दर्शाता है जो ‘शांति’ को हासिल करने के लिए जरूरी है।

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प्रश्न-3 भारत आजकल इस्लामिक देशों की ओर ज्यादा ध्यान क्यों दे रहा है? हाल ही में प्रधानमंत्री मिस्र की यात्रा पर गये थे अब वह यूएई जा रहे हैं। इसके अलावा रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह मलेशिया की यात्रा पर गये। इस सबको कैसे देखते हैं आप?
उत्तर- भारत इस्लामिक देशों की ओर ज्यादा ध्यान नहीं दे रहा बल्कि इस्लामिक देश भारत के करीब आ रहे हैं। यह बात सही है कि कुछ समय पहले तक इस्लामिक देशों ने भारत से दूरी बनाये रखी थी और पता नहीं किस डर से भारत की सरकार भी इस्लामिक देशों से निकटता नहीं बढ़ा रही थी मगर वर्तमान सरकार ने अपनी कुशल विदेश नीति से सबका दिल जीत लिया है। आज इस्लामिक देशों में मंदिर बन रहे हैं, उनका सर्वोच्च सम्मान भारत के प्रधानमंत्री को दिया जा रहा है और द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत बनाने की कोशिशें दोनों ओर से हो रही हैं इसलिए प्रधानमंत्री और अन्य मंत्रियों का इस्लामिक देशों का दौरा भी हो रहा है। इसके अलावा यह एक तथ्य है कि इस्लामिक देशों ने भले अपने विभिन्न संगठन बना रखे हों लेकिन अधिकतर समय तक इन्हें अमेरिका ही नियंत्रित करता रहा। अब अमेरिका पीछे हटा है तो उस जगह को भरने के लिए भारत आ रहा है। वैसे भी कई इस्लामिक देश सुरक्षा तथा अन्य मुद्दों को लेकर आत्मनिर्भर बनना चाहते हैं और इसके लिए उन्हें भारत ही भरोसेमंद सहयोगी के तौर पर दिख रहा है। चाहे हथियार खरीदने की बात हो या फिर संयुक्त युद्धाभ्यास की, इस्लामिक देश भारत की ओर देख रहे हैं। इस्लामिक देश यह भी देख रहे हैं कि उनकी कुल आबादी से ज्यादा संख्या में मुस्लिम भारत में रहते हैं और वहां उनको हर अधिकार तथा सहुलियतें हासिल हैं। 
मुस्लिम वर्ल्ड लीग महासचिव शेख मोहम्मद बिन अब्दुलकरीम अल-इस्सा के भारत दौरे पर भी सबको गौर करना चाहिए। उन्होंने भारत दौरे के दौरान दिये अपने संबोधन में कहा है कि भारत में विचार की विविधता ने उन्हें काफी प्रभावित किया और उन्होंने ऐसा शांतिपूर्ण सह अस्तित्व कहीं नहीं देखा, जैसा कि उन्हें इस देश में देखने को मिला है। भारत की यात्रा पर आये अल-इस्सा ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से भी मुलाकात की। अल-इस्सा ने अरबी में कहा कि भारतीय दर्शन मानव की प्रगति में सहायक है। उन्होंने कहा कि भारत में विचार की विविधता ने मुझे काफी प्रभावित किया है…विश्व भारत के ज्ञान से लाभान्वित हो सकता है।
प्रश्न-4 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फ्रांस यात्रा किन मायनों में अहम है? हम यह भी जानना चाहते हैं कि नौसेना के लिए सबमरीन सौदा क्यों अहम है?
उत्तर- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फ्रांस दौरे के दौरान ही रक्षा मंत्रालय ने फ्रांस से राफेल लड़ाकू विमानों के 26 नौसैनिक प्रारूपों की खरीद के प्रस्ताव को मंजूरी दी। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता वाली रक्षा खरीद परिषद (डीएसी) ने उस दिन परियोजना को मंजूरी दी जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की दो दिवसीय पेरिस यात्रा शुरू हो रही है। डीएसी रक्षा खरीद पर निर्णय लेने वाली रक्षा मंत्रालय की सर्वोच्च इकाई है। उसने भारत में तीन और स्कॉर्पीन पनडुब्बियों के विनिर्माण के प्रस्ताव को भी स्वीकृति दी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों की शुक्रवार को पेरिस में होने वाली व्यापक बातचीत के बाद बड़ी रक्षा परियोजनाओं की घोषणा की जा सकती है। रक्षा खरीद बोर्ड (डीपीबी) ने एक सप्ताह पहले ही परियोजनाओं को स्वीकृति दे दी थी। भारतीय नौसेना स्वदेश निर्मित विमानवाहक पोत आईएनएस विक्रांत के लिए 26 डेक-आधारित लड़ाकू विमानों की खरीद पर विचार कर रही है। नौसेना ने लंबी प्रक्रिया के बाद खरीद के लिए बोइंग एफ/ए-18 सुपर हॉर्नेट और फ्रांसीसी कंपनी दासॉल्ट एविएशन के राफेल एम विमान के बारे में विचार किया। बाद में राफेल एम इस दौड़ में विजेता रहा। भारतीय वायु सेना के लिए फ्रांस से पहले ही 36 राफेल विमान खरीदे जा चुके हैं। देखा जाये तो सबमरीन भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि बताया जाता है कि दुनिया में सबसे ज्यादा सबमरीन उत्तर कोरिया के पास 71, अमेरिका के पास 69 और चीन के पास 50 हैं। जबकि भारत के पास अभी सिर्फ 16 ही पनडुब्बियां हैं।
बताया जा रहा है कि भारत नौसेना के लिए फ्रांस से 26 राफेल विमान और तीन स्कॉर्पीन पनडुब्बियों की खरीद के लिए जमीनी कार्य को अंतिम रूप दे चुका है। बताया जा रहा है कि दोनों पक्ष एक समझौते पर मुहर लगायेंगे, जिसके तहत फ्रांस की प्रमुख रक्षा कंपनी ‘सफरान’ और एक भारतीय कंपनी संयुक्त रूप से भारत में एक विमान इंजन विकसित करेगी। 
इसके अलावा, फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के निमंत्रण पर 13 से 14 जुलाई तक फ्रांस के राजकीय दौरे पर पहुँचे प्रधानमंत्री मोदी को फ्रांस के राष्ट्रीय दिवस या बैस्टिल दिवस पर पेरिस में होने वाले समारोह में विशिष्ट अतिथि के रूप में सम्मिलित होना है। बैस्टिल दिवस परेड में भारत की तीनों सेनाओं का दल भी हिस्सा लेगा, जबकि भारतीय वायुसेना इस अवसर पर फ्लाई-पास्ट का प्रदर्शन करेगी। दोनों देशों की सामरिक साझेदारी की यह 25वीं वर्षगांठ है। देखा जाये तो गहरे विश्वास और संकल्प में निहित दोनों देशों के बीच रक्षा, अंतरिक्ष, असैन्य परमाणु, नीली अर्थव्यवस्था, व्यापार, निवेश, शिक्षा, संस्कृति और लोगों के बीच मेल-मिलाप सहित विभिन्न क्षेत्रों में करीबी सहयोग हो रहा है। प्रधानमंत्री की फ्रांस यात्रा काफी महत्वपूर्ण होगी और यह आने वाले वर्षों में दोनों देशों के सामरिक गठजोड़ के लिए ‘नये मानदंड’ तय करेगी।
इसके अलावा, भारत ने हालांकि फ्रांस के कई शहरों में हिंसक घटनाओं को उस देश का आंतरिक मामला बताया और कहा कि इसका इस यात्रा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। लेकिन हो सकता है कि ऐसे हालात से निबटने के मोदी के अनुभव को देखते हुए मैक्रों उनसे कुछ टिप्स भी लें।
प्रश्न-5 जैसे-जैसे चुनाव करीब आ रहे हैं वैसे-वैसे अग्निपथ योजना के विरोध में राजनीतिक बयानबाजी तेज होने लगी है। इस बीच एक खबर यह भी आई कि सेना खुद चाहती है कि 50 प्रतिशत अग्निवीर परमानेंट होने चाहिए। इसे कैसे देखते हैं आप?
उत्तर- अग्निपथ योजना के विरोध में राजनीतिक बयानबाजी दुर्भाग्यपूर्ण है। जब यह योजना लाई गयी थी तो इसमें अनुभव के आधार पर बदलाव करने की सेना को छूट दी गयी थी। सेना और उससे जुड़े अधिकारी तथा पूर्व सैन्यकर्मियों के संगठनों ने सुझाव दिये हैं कि 50 प्रतिशत अग्निवीरों को पक्की नौकरी दी जाये। इस सुझाव को लेकर सेना की सकारात्मक प्रतिक्रिया है। सेना जरूरत के हिसाब से फैसला लेगी इस पर किसी को कोई टिप्पणी नहीं करनी चाहिए।



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